Friday, August 1

صبح‌گاه

چه کوتاه و آرام آمد امروز
‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ و،
برده هوشم
رُبوده به یکباره قرارم
‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ز جان بی‌نوایم
چه گویی؟! می‌برد باز دلم، دینم، همه بودم
‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌که گویی هیچ‌گاه در این عالم نبودم

سکوتش را هر روز بوسیدن،
در تماشای لطافت‌های زیبایش آرمیدن
‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌ ‌خُفتن
این‌چنین بودن، مَست ماندن
زیباست

آری زیباست
سوز و گُداز ِ
دیدار صبحگاهم!